Thursday, February 18, 2010

कोरे दिल पर.. ...

कोरे दिल पर दस्तखत करके मैंने उनको सौंप दिया।
कुछ भी सूझा नहीं उन्हें तो जी भर खंजर भोंक दिया।
रीता ही रहने दो घट को, अब अमृत बेमानी है ,
प्यार में प्यारों के हाथों मैंने इतना जहर पिया॥

अब भी प्रचुर प्रकाश छिपा है...

अब भी प्रचुर प्रकाश छिपा है, इस अंधेर नगरी में,
लेकिन प्रथम उपाय है प्यारे अपना घर जला कर देखो
मिलेगी रोती सच्चाई, यदि विधि का कवच हटाकर देखो,
न्याय के ठेकेदार हैं जो, उनको अभियुक्त बनाकर देखो !

समता के इतने विषम प्रयोग लोकतंत्र में होते हैं,
न्याय कह रहा संविधान से, "समता खंड" हटाकर देखो !!!


..........(पुरानी डायरी से, जब मैंने वकालत शुरू किया )

Monday, February 15, 2010

पुरानी डायरी से...४


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी
निर्विकार
मन शिशु जैसा तो गीता क्या दुहराने को!
जी करता है मेरा, फिर से बच्चा बन जाने को


भाव, अभाव , कुभाव होते, भेदों के बर्ताव होते;
तृषा होती, ब्यथा होती, पल पल नए तनाव होते;
इस गुड्डे की उस गुडिया से शादी रोज रचाया करते,
अपने रचे घरौंदे होते, उनके भवन बसाने को ।।॥ ...

ओक्का बोक्का तीन तलोक्का , अक्कड़ बक्कड़ पंजा छक्का,
लट्ठे की पी पी रेल गाड़ी, कोई होता बिना टिकट का;
काले जामुन खिरनी बासी, अमवा की कोइली कोइलासी;
टिकोरे की गुठली छटकाते, शादी की दिशा बताने को।। ॥ ..........

इस क्यारी से उस गमले तक, पौधा कितना बढ़ा शाम तक,
गोबर के गौर गणेश बताते, अतिथि देवता आते है अब;
मुट्ठी में भरकर चाँद सितारे लाने का इरादा पक्का होता,
दस पैसे का सिक्का होता, शहर खरीदकर लाने को॥ ......

राजा, मंत्री, चोर, सिपाही, न्याय खेल में न्यारा होता,
किस्सों के बुझौवल में कितना सत्य शुद्ध बंटवारा होता,
अब तो पुस्तक से अनुसंशित, विधिक न्याय अभियुक्त प्रसंशित,
दांव पेंच में सहस गंवाते, खोटी कौड़ी पाने को !!॥ ......

पुरानी डायरी से..४

निर्विकार मन शिशु जैसा तो गीता क्या दुहराने को!
जी करता है मेरा, फिर से बच्चा बन जाने को ।

पुरानी डायरी से ...३

कहाँ से यह मायूसी छायी, महावीर की मस्ती पर !
शंका क्यों होने लगती है, हमको अपनी हस्ती पर !
इतने डाके कैसे पड़ गए ! इतने चोर कहाँ से आये !
"नाम" का इतना सक्षम प्रहरी लगातार था गश्ती पर !!


...............................(अक्टूबर, १९९५)

नाम : नाम पाहरू दिवस निशि, ध्यान तुम्हार कपाट

पुरानी डायरी से.२ ..

निगाहें नाखुदा तेरी, कहीं इधर तो नहीं !
मेरे सीने में भी दिल है , पत्थर तो नहीं।
छोड़ के जाएँ कहाँ हुस्न हसीनों की गली,
मस्जिदों में ईमान का बसर तो नहीं।
श्रेय के संग प्रेय का जायका मुमकिन कहाँ,
ऐ मन तेरे मुताबिक मिली उमर तो नहीं।
बहुत मीठी है, रसीली है जुबां उसकी,
डरता हूँ, इस शहद में जहर तो नहीं!

पुरानी डायरी से...

अंतिम कविता

हृदय नया, मस्तिष्क पुराना,
आवेगों का ताना बाना ;
संशयग्रसित क्रिया शापित है,
कुंठित कर्तापन बचकाना
*******
संबंधों के कारक कृशतर,
संज्ञाहीन समास अजाना;
अलंकार क्या , हेतु नहीं जब,
रस वर्जित, फिर कौन तराना
...............................कैसी कविता, कैसा गाना ?