Sunday, December 5, 2010

मौन गगन

लहरों ज्वार भाटे में प्रतिपल प्रश्न उभरते हैं,
मौन गगन का समाधान समझाए कौन समुंदर को।
व्याध बिचारे की गलती से पार्थिव कृष्ण प्रयाण किये ,
अब अर्जुन को कौन दिखाए विश्वरूप के मंजर को।
वक्र वसिष्ठ विश्वमित्र पर वेदव्यास को खोजे कौन,
चिर समाधि में गोरख लीन जगाये कौन मछंदर को।

जारी .....

Friday, October 1, 2010

संविधान चालीसा

संविधान चालीसा
जय भारत दिग्दर्शक स्वामी । जय जनता उर अंतर्यामी ॥
जनमत अनुमत चरित उदारा । सहज समन्जन भाव तुम्हारा॥
सहमति सन्मति के अनुरागी । दुर्मद भेद - भाव के त्यागी॥
सकल विश्व के संविधान से। सद्गुण गहि सब विधि विधान से॥
गुण सर्वोत्तम रूप बृहत्तम। शमित बिभेद शक्ति पर संयम ॥
गहि गहि राजन्ह एक बनावा । संघ शक्ति सब कंह समुझावा ॥
देखहु सब जन एक समाना। असम विषम कर करहु निदाना॥
करि आरक्षण दीन दयाला। दीन वर्ग को करत निहाला॥
हरिजन हित उपबंध विशेषा। आदिम जन अतिरिक्त नरेशा ॥
बालक नारि निदेश सुहावन। जेहि परिवार रुचिर अति पावन॥
जग मंगल गुण संविधान के। दानि मुक्ति,धन,धर्म ध्यान तें॥
वेद, कुरान,पिटक ग्रन्थ के। एक तत्व लखि सकल पंथ के॥
सब स्वतंत्र बंधन धारन को। लक्ष्य मुक्ति मानस बंधन सो॥
पंथ रहित जनहित लवलीना। सकल पंथ ऊपर आसीना॥
यह उपनिषद रहस्य उदारा। परम धर्म तुमने हिय धारा॥
नीति निदर्शक जन सेवक के। कर्म बोध दाता सब जन के॥
मंत्र महामणि लक्ष्य ज्ञान के। सब संविधि संशय निदान के॥
भारत भासित विश्व विधाता। जग परिवार प्रमुख सुखदाता॥
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रचि विधान संसद विलग, अनुपालक सरकार।
आलोचन गुण दोष के , न्याय सदन रखवार॥
मित्र दृष्टि से आलोचन , न्याय तंत्र सहकार॥
रहित प्रतिक्रिया द्वेष से, चितवत बारम्बार॥
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देत स्वशासन ग्राम ग्राम को। दूरि बिचौधन बेईमान को॥
दे स्वराज आदिम जनगण को। सह विकास संस्कृति रक्षण को॥
बांटि विधायन शक्ति साम्यमय। कुशल प्रशासी केंद्र राज्य द्वय॥
कर विधान जनगण हितकारी। राजकोष संचय सुखकारी॥
राज प्रजा सब एक बराबर। जब विवाद का उपजे अवसर॥
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जो जेहि भावे सो करे, अर्थ हेतु व्यवसाय।
सहज समागम देश भर, जो जंह चाहे जाय॥
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सबको अवसर राज करन को। शासन सेवक जनगण मन को॥
सब नियुक्त सेवा विधान से। देखि कुशल निष्पक्ष ध्यान से॥
पांच बरस पर पुनि आलोचन। राज काज का पुनरालोकन॥
जनता करती भांति-भांति से। वर्ग-वर्ग से जाति- जाति से॥
अबुध दमित जन आदि समाजा। बिबुध विशेष बिहाइ बिराजा॥
भाषा भनिति राज व्यवहारी। अंग्रेजी-हिंदी अवतारी॥
विविध लोक भाषा सन्माना। निज-निज क्षेत्रे कलरव गाना॥
राष्ट्र सुरक्षा संकट छाये। सकल शक्ति केंद्र को धाये॥
राज्य चले जब तुझ प्रतिकूला। असफल होय तंत्र जब मूला॥
आपद काल घोषणा करते। शक्ति राज्य की वापस हरते॥
अति कठोर नहिं अति उदार तुम। जनहित में संशोधन सक्षम॥
बिबिध राज्य उपबंध विशेषा। शीघ्र हरहु कश्मीर कलेशा॥
दुष्ट विवर्धित लुप्त सुजाना। आडम्बर ग्रसित सदज्ञाना ॥
राम राज लगि तुम अवतारा। लक्षण देखि वसिष्ठ बिचारा॥
जिनको जस आदेश तुम्हारे। सो तेहि पालन रहत सुखारे॥
समता प्रभु की उत्तम पूजा। तुम्हरो कछु उपदेश न दूजा॥
सो तुम होउ सर्व उर वासी। पीर हरहु हरिजन सुखराशी॥
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यह चालीसा ध्यानयुत, समझि पढ़े मन लाय॥
राज, धर्म, धन सुख मिले, समरसता अधिकाय॥
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॥ इति श्री भारत भाग्य प्रदीपिका संविधानसारतत्वरुपिका च संविधान चालीसा सम्पूर्णा ॥

Thursday, February 18, 2010

कोरे दिल पर.. ...

कोरे दिल पर दस्तखत करके मैंने उनको सौंप दिया।
कुछ भी सूझा नहीं उन्हें तो जी भर खंजर भोंक दिया।
रीता ही रहने दो घट को, अब अमृत बेमानी है ,
प्यार में प्यारों के हाथों मैंने इतना जहर पिया॥

अब भी प्रचुर प्रकाश छिपा है...

अब भी प्रचुर प्रकाश छिपा है, इस अंधेर नगरी में,
लेकिन प्रथम उपाय है प्यारे अपना घर जला कर देखो
मिलेगी रोती सच्चाई, यदि विधि का कवच हटाकर देखो,
न्याय के ठेकेदार हैं जो, उनको अभियुक्त बनाकर देखो !

समता के इतने विषम प्रयोग लोकतंत्र में होते हैं,
न्याय कह रहा संविधान से, "समता खंड" हटाकर देखो !!!


..........(पुरानी डायरी से, जब मैंने वकालत शुरू किया )

Monday, February 15, 2010

पुरानी डायरी से...४


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी
निर्विकार
मन शिशु जैसा तो गीता क्या दुहराने को!
जी करता है मेरा, फिर से बच्चा बन जाने को


भाव, अभाव , कुभाव होते, भेदों के बर्ताव होते;
तृषा होती, ब्यथा होती, पल पल नए तनाव होते;
इस गुड्डे की उस गुडिया से शादी रोज रचाया करते,
अपने रचे घरौंदे होते, उनके भवन बसाने को ।।॥ ...

ओक्का बोक्का तीन तलोक्का , अक्कड़ बक्कड़ पंजा छक्का,
लट्ठे की पी पी रेल गाड़ी, कोई होता बिना टिकट का;
काले जामुन खिरनी बासी, अमवा की कोइली कोइलासी;
टिकोरे की गुठली छटकाते, शादी की दिशा बताने को।। ॥ ..........

इस क्यारी से उस गमले तक, पौधा कितना बढ़ा शाम तक,
गोबर के गौर गणेश बताते, अतिथि देवता आते है अब;
मुट्ठी में भरकर चाँद सितारे लाने का इरादा पक्का होता,
दस पैसे का सिक्का होता, शहर खरीदकर लाने को॥ ......

राजा, मंत्री, चोर, सिपाही, न्याय खेल में न्यारा होता,
किस्सों के बुझौवल में कितना सत्य शुद्ध बंटवारा होता,
अब तो पुस्तक से अनुसंशित, विधिक न्याय अभियुक्त प्रसंशित,
दांव पेंच में सहस गंवाते, खोटी कौड़ी पाने को !!॥ ......

पुरानी डायरी से..४

निर्विकार मन शिशु जैसा तो गीता क्या दुहराने को!
जी करता है मेरा, फिर से बच्चा बन जाने को ।

पुरानी डायरी से ...३

कहाँ से यह मायूसी छायी, महावीर की मस्ती पर !
शंका क्यों होने लगती है, हमको अपनी हस्ती पर !
इतने डाके कैसे पड़ गए ! इतने चोर कहाँ से आये !
"नाम" का इतना सक्षम प्रहरी लगातार था गश्ती पर !!


...............................(अक्टूबर, १९९५)

नाम : नाम पाहरू दिवस निशि, ध्यान तुम्हार कपाट