Monday, October 26, 2009

ब्रह्माण्ड गीत

ब्रह्माण्ड गीत
एक बार शारदीय नवरात्र में मुझे ऐसी अनुभूति हुयी कि कहीं दूर अन्तरिक्ष में एक दिव्य शक्ति धीरे-धीरे अपना नूपुर झनका रही है और उसी के स्वर तरंगों से समूचे चराचर जगत का सञ्चालन हो रहा है ; यह सारा ब्रह्माण्ड उन्हीं स्वर तरंगों से उत्पन्न हुआ है तथा विस्तारित हो रहा है और उसी में लीन भी हो रहा है । उत्पत्ति और लय का क्रम निरंतरित है। इसी भावानुभूति में यह श्लोक लिखे गए थे जो स्मृति के आधार पर यहाँ प्रस्तुत किए जा रहे हैं । व्याकरण एवं काव्य सम्बन्धी त्रुटियों के सुधार सुधी जनों से सादर एवं साभार आमंत्रित हैं । फिलहाल , टंकड़ सम्बन्धी विशेज्ञता के अभाव में कुछ त्रुटियां प्रत्यक्ष हैं जिनका सुधार किसी दक्ष व्यक्ति की सहायता से शीघ्र किया जायगा ।
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द्वेष क्लेशहारिणीमनन्तलोकचारिनीम्मनोविनोदकारिनीम्सदामुदाप्रसारिनीम् ।
पापतापनाशिनीमग्यानग्यानवर्तिनीम् नौमि पादपंकजं सुभक्तश्रेयकारिनीम॥ १॥
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विभागभागनूपुरमत्रिलोकरागरंजितमसन्चारितम्लयम्प्रियम जगच्चमोहितंकृतम्।
झनन्झनन्झनन्नवीनचेतना प्रवाहितं झकारशक्तिचालितम दधाति यो दधामि तम्॥ २॥
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वेदपाठ नाकृतं न धर्म धारितं मया न योगयज्ञयुक्तिमान्नमामि केवलं सदा।
नमन्नमन्नमन्नमन्निरोध चित्तवृत्ति मे भवेद्देवि देहि मे भवं भयात् तत्पदम ॥ ३॥
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अनामयं निरामयं अरूपमं निरुपमं, शिवं शिवं शिवं शिवे करोति या सदाशिवम् ।
तयाशिवंमयाशिवं सुशब्दशक्तिसाशिवा विभातुपातु नो धियं जगत्शिवाय मे शिवम् ॥४॥

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