Friday, October 30, 2009

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Monday, October 26, 2009

ब्रह्माण्ड गीत

ब्रह्माण्ड गीत
एक बार शारदीय नवरात्र में मुझे ऐसी अनुभूति हुयी कि कहीं दूर अन्तरिक्ष में एक दिव्य शक्ति धीरे-धीरे अपना नूपुर झनका रही है और उसी के स्वर तरंगों से समूचे चराचर जगत का सञ्चालन हो रहा है ; यह सारा ब्रह्माण्ड उन्हीं स्वर तरंगों से उत्पन्न हुआ है तथा विस्तारित हो रहा है और उसी में लीन भी हो रहा है । उत्पत्ति और लय का क्रम निरंतरित है। इसी भावानुभूति में यह श्लोक लिखे गए थे जो स्मृति के आधार पर यहाँ प्रस्तुत किए जा रहे हैं । व्याकरण एवं काव्य सम्बन्धी त्रुटियों के सुधार सुधी जनों से सादर एवं साभार आमंत्रित हैं । फिलहाल , टंकड़ सम्बन्धी विशेज्ञता के अभाव में कुछ त्रुटियां प्रत्यक्ष हैं जिनका सुधार किसी दक्ष व्यक्ति की सहायता से शीघ्र किया जायगा ।
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द्वेष क्लेशहारिणीमनन्तलोकचारिनीम्मनोविनोदकारिनीम्सदामुदाप्रसारिनीम् ।
पापतापनाशिनीमग्यानग्यानवर्तिनीम् नौमि पादपंकजं सुभक्तश्रेयकारिनीम॥ १॥
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विभागभागनूपुरमत्रिलोकरागरंजितमसन्चारितम्लयम्प्रियम जगच्चमोहितंकृतम्।
झनन्झनन्झनन्नवीनचेतना प्रवाहितं झकारशक्तिचालितम दधाति यो दधामि तम्॥ २॥
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वेदपाठ नाकृतं न धर्म धारितं मया न योगयज्ञयुक्तिमान्नमामि केवलं सदा।
नमन्नमन्नमन्नमन्निरोध चित्तवृत्ति मे भवेद्देवि देहि मे भवं भयात् तत्पदम ॥ ३॥
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अनामयं निरामयं अरूपमं निरुपमं, शिवं शिवं शिवं शिवे करोति या सदाशिवम् ।
तयाशिवंमयाशिवं सुशब्दशक्तिसाशिवा विभातुपातु नो धियं जगत्शिवाय मे शिवम् ॥४॥

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बीज बोता चल........

निज नयनों से छुपकर रोना अच्छा लगता है ।
अश्कों से ही दिल को धोना अछा लगता है॥
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जाने क्यों मगरूर हूँ मैं , आदत से मजबूर हूँ मैं ;
कुछ न पाकर सब कुछ खोना अच्छा लगता है।
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दर्दीले हैं तार अधिकतर जीवन की शहनाई के,
छेड़ दो..., अब तो दर्द का होना अच्छा लगता है।
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कौन काटकर खायेगा यह फसलें मालूम नहीं,
मुझको तो बस बीज का बोना अच्छा लगता है।
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महफिल से भागा- भागा ढूढ़ रहा हूँ तन्हाई ,
पास में लेकिन आपका होना अच्छा लगता है॥
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चेतना की थाप सुनकर....

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भावना की बाढ़ इतनी तेज आयी ,
वर्जना के बाँध सारे बह गये।

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सर्जना में प्राण भरने के समय ,
अर्चना के फूल सारे हर गये।
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वेदना के स्वर अधर को छू न पाए ,
चेतना की थाप सुनकर डर गये ।
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सांत्वना के वास्ते दो बोल तो बोलते,
आर्तना बढ़ती रहे आप ऐसा कर गये॥
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अनकही कथायें...

सिर रखकर तेरे मृदुल अंक में , रो लेने का जी करता है!
अनसुने गीत, अनकही कथायें ;
दमित भाव - उद्दमित ब्यथाएं;
हृदय को आंसू की धारा में , धो लेने का जी करता है!
सिर रखकर तेरे मृदुल अंक में , रो लेने का जी करता है!!

हवाओं से कह दो हँसी न उड़ायें

बरसें न बरसें , न बिजली गिरायें ;
घटाओं से कह दो शहर न जलायें ।
मुहब्बत की झूठी सदाओं से कह दो,
नरमी में भींगी अदाओं से कह दो,
क़समें वफ़ा की बहुत खा चुके हैं,
कहो दोस्तों से थोड़ा शर्म खायें॥ बरसें न बरसें ..... ॥